शनिवार, 28 जनवरी 2012

Chalo, raah apani banayen

चलो, राह अपनी बनाये

चलो, राह अपनी बनायें,
अंधेरों में चलकर दीपक जलाएं।।

        गिरे खा के ठोकर उनको उठायें,
        भटके हुओं को सुपथ हम दिखाएँ।
        बिछुड़े हुओं को गले से लगायें,
        निराशा के घर में आशा जगाएं।।

नदी को दिए हैं किसने किनारे,
गगन में जड़े हैं किसने सितारे।
नयी एक फिर से दुनिया रचायें,
नए चाँद-सूरज उसमें उगायें।।

        नए हों तराने, नयी हों फिजायें,
        नए गीत फिर से यहाँ गुनगुनाएं।
        नयी हों उमंगें, नयी हों तरंगें,
        खुशियों के झरने फिर से बहायें।।

सोये यहाँ कोई भूखा न प्यासा,
सब हों निरोगी, सबल सब की काया।
मिटें कष्ट सबके, बनें ज्ञान-मण्डित,
व्यसनों से मुक्ति सभी को दिलाएं।।

        रोये न कोई यहाँ दुक्ख पाकर,
        कोई किसी को कभी न सताए।
        बहे प्रेम-गंगा ह्रदय में सभी के,
        नए नित्य नूतन सरसिज खिलाएं।।

Srijan adhure hawa hue

सृजन अधूरे हवा हुए


किसने ठगे सुहाने सपने,
हाय! कली से मसल दिए ।
अंधियारों के गाँव बताओ,
कहाँ-कहाँ पर जले दिए ।।

        सपनों सी अंगड़ाई वाले,
        महल अनूठे खड़े किये ।
        करवट बदली निंदिया टूटी,
        सृजन अधूरे हवा हुए ।।

बिजली की झिलमिल में देखे,
आंसू उनके बिके हुए ।
सब अरमान तड़पते देखे,
मृगछौनों से बिंधे हुए ।।

        ताल-ताल पर नाचें-थिरकें,
        हंसी मुखौटे धरे हुए ।
        भीतर-भीतर सिसक रहे हैं,
        कोलाहल में दबे हुए ।।

किसने इन्हें निचोड़ा इतना,
हाड़-माँस सब अलग किये ।
दिखें घूमते पंजर जैसे,
बचपन में ही वृद्ध हुए ।।

        मौन अमावास आ बैठी है,
        चेहरा अपना ढके हुए ।
        कौन पढ़े उसकी लाचारी,
        छक कर सबने जाम पिए ।।

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

Samay ne tumko pukara

समय ने तुमको पुकारा


समय ने तुमको पुकारा,
तोडिये शैथिल्य कारा।
छोड़ तन्द्रा औ उदासी,
पग बढ़े पथ में तुम्हारा।।

        घटायें घिर रही काली,
        दूर है अब भी किनारा।
        साहसी! पतवार थामो,
        संकल्प का ले कर सहारा।।

आंधियां चलने लगी हैं,
बिजलियों ने पथ उघारा।
पगों में भर लो प्रभंजन,
नहीं कोई और चारा।।

        विजय का विश्वास ले कर,
        रचो, नव इतिहास प्यारा।
        निष्कर्ष है युग सत्य ये ही,
        सृजन से विध्वंस हारा।।

जले जब-जब दीप घर-घर,
तम सघन तब-तब विदारा।
आलोक के सम्मुख टिका कब,
है अमा का तम बेचारा।।

Gantantra Parv

गणतंत्र पर्व


ले उदासी औ निराशा,
आ गया गणतंत्र फिर से।
पर्व सांसों में समाये,
हैं सघन कितने कुहासे।।

        रो रहा गण, तंत्र बेबस,
        सबल सबका खून चूसे।
        आसनों पर जम गए हैं,
        भ्रष्ट निर्लज दस्यु जैसे।।

चाहता गण तंत्र बदलो,
नव सृजन के मंत्र बदलो।
दासता के चिन्ह सारे,
अब मिटें मानस पटल से।।

        त्याग के पथ पर बढे थे,
        शीष अपना जो चढाने।
        मातृ भू की अर्चना का,
        मांगिये आशीष उनसे।।